गंगाघाट की जनता जाम में बेहाल, नेता व्यापारिक स्वार्थ में लीन

उन्नाव, 31 जनवरी 2025 – गंगाघाट की जनता वर्षों से बदहाल सड़कों और भीषण जाम की मार झेल रही है। उनकी आवाज़ अनसुनी कर दी गई है, उनकी मांगें धूल खा रही हैं, और उनकी तकलीफें बढ़ती जा रही हैं। पांच वर्षों से लोग सिर्फ एक ही अनुरोध कर रहे हैं—नया पुल। लेकिन उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा वही नेता बने हुए हैं, जिन पर जनता की सेवा का दायित्व था।

गंगाघाट की जनता जाम में बेहाल
गंगाघाट की जनता जाम में बेहाल

गंगाघाट के लोग अब पूरी तरह हताश हो चुके हैं। यहां पहले दो पुल थे—एक अंग्रेजों के जमाने का और दूसरा ब्रजेश पाठक के कार्यकाल में बना। लेकिन जब पांच साल पहले पुराने पुल में दरारें आईं, तो इसे बिना मरम्मत किए ही बंद कर दिया गया। आश्वासनों की बौछार हुई, नए पुल का वादा किया गया, लेकिन हकीकत में कुछ नहीं बदला। इसी बीच, पुराने पुल का लोहा चोरी हो गया, और प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। ऐतिहासिक धरोहर समझे जाने वाला यह पुल 2024 में ढह गया, लेकिन सरकार और नेताओं की खामोशी ने जनता के दर्द को और गहरा कर दिया।

जनता के लिए जाम बना मौत का सबब

पुल ढहने के बाद क्या हुआ? एंबुलेंस में दम तोड़ते मरीज, स्कूल न पहुंच पाने वाले बच्चे, देरी से ऑफिस पहुंचने वाले कर्मचारी—हर किसी की जिंदगी ठहर गई। हर गली, हर मोड़ पर जनता ने बेबसी महसूस की, लेकिन उनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं था। पांच साल बीत गए, लेकिन हालात जस के तस हैं। जनता अब जाम में पिस रही है, जबकि नेता अपनी व्यापारिक महत्वाकांक्षाओं में लिप्त हैं। उनके लिए जनता सिर्फ एक वोट बैंक है, जिससे चुनाव के वक्त सहानुभूति बटोरी जा सके।

इन नेताओं के लिए पुल, सड़कें, और जनता की समस्याएं महज एक साधन हैं, जिनका उपयोग वे अपने सत्ता और स्वार्थ की भूख मिटाने के लिए कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि गंगाघाट की गलियों में अब एक ही कहावत गूंज रही है—*”जिसकी लाठी, उसकी भैंस।“* जनता की लाचारी और नेताओं की बेरुखी ने इस कहावत को जीवंत कर दिया है।

सोशल मीडिया पर उठी आवाज़, नेताओं ने किया दबाने का प्रयास

जब कोई आम नागरिक सोशल मीडिया पर अपनी तकलीफ बयां करता है, तो यही नेता उसे चुप कराने में लग जाते हैं। वे तंज कसते हैं, “सोशल मीडिया पर लिखने से क्या होगा? सड़कों पर उतरो!” लेकिन यह वही नेता हैं, जो चुनावों में जनता के बीच झूठे वादों के साथ घूमते हैं, और फिर सत्ता में आते ही गायब हो जाते हैं।

क्या यह उनका कर्तव्य नहीं है कि वे जनता की समस्याओं का समाधान करें? क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे सड़क पर उतरकर विरोध करें और प्रशासन को जवाबदेह बनाएं? लेकिन नहीं, उनके लिए जनता की तकलीफें सिर्फ एक बहाना हैं, जिसे वे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सोशल मीडिया पर उठी आवाज़ सिर्फ गुस्से का इज़हार नहीं, बल्कि व्यवस्था पर करारा प्रहार है। यह उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जो वर्षों से लोगों के दिलों में सुलग रही है। लेकिन नेताओं को डर है कि यह आवाज़ अगर सड़कों तक पहुंची, तो उनकी सत्ता हिल सकती है। यही कारण है कि वे आम आदमी की आवाज़ को दबाने के हरसंभव प्रयास करते हैं।

आखिर कब तक सहेंगे गंगाघाट के लोग?

क्या सोशल मीडिया पर लिखने से कुछ बदलेगा? हां, इससे सरकार और प्रशासन तक यह संदेश जाएगा कि जनता अब चुप नहीं रहेगी। यह एक चेतावनी होगी कि लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार हैं। लेकिन जिन नेताओं को जनता की भलाई की चिंता होनी चाहिए, वे अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाते हैं।

वे भूल जाते हैं कि आंदोलन करना जनता का नहीं, बल्कि उनका कर्तव्य है। सत्ता में आने से पहले वे जनता की समस्याओं को सुलझाने का वादा करते हैं, लेकिन सत्ता मिलने के बाद उनका ध्यान केवल अपने स्वार्थ पर केंद्रित हो जाता है। जनता अब बस एक सवाल पूछ रही है—*क्या यह खामोशी अब और सहन की जाएगी, या फिर आवाज़ उठेगी, जिसे अनदेखा करना नामुमकिन होगा?

Writer :- Prashant Shukla 

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